झूलेलाल जी की चमत्कारी अखंड ज्योति

 झूलेलालजी अर्थात वरुण देव सिंधी समाज के इष्ट के रूप में पूजे जाते है और माता हिंगलाज सिंधी समाज के कुलदेवी मानी जाती है ये बात शायद सभी लोग जानते है इससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं।



सिंधी समाज एक व्यापारी समाज है,उनकी बिजनेस में समझ इतनी है कि एक कहावत है सिंधी लोगों के लिए कि_ "सिंधी व्यक्ति पेट से व्यापार करने का गुण सीखकर आता है" उसे कभी व्यापार के गुण सीखने नहीं पड़ते क्योंकि बचपन से ही बच्चों को अपने परिवार से ये हुनर विरासत में मिलता है। एक बात और आपको हर जाति धर्म में अमीर गरीब देखने को मिलते होंगे,कोई अरबों में खेल रहा होता है तो कोई भीख मांग कर अपना गुजारा चलाता है पर आश्चर्य करोगे आप को कभी सिंधी समाज का कोई व्यक्ति भीख मांगते नहीं मिलेगा ,ऐसा नहीं की सिंधी समाज के लोग सारे ही अरबों में खेलते है और उनमें गरीब लोग नहीं होते , होते है हर तबके के लोग सिंधी समाज में भी।काम उनका छोटा या बड़ा गुजारा सभी अपनी मेहनत के दम पर करना पसंद करते है।
तभी जब सरकार द्वारा सिंधी समाज को अल्पसंख्यक का दर्ज़ा दिए जाने की बात उठी तो लालकृष्ण आडवाणी जी इनकार करते हुए कहा सिंधी समाज एक मेहनतकश वर्ग है सिंधी समाज का कोई व्यक्ति भीख नहीं मांगता और वो इस देश का अभिन्न अंग है तो उन्हें सामान्य में रखा जाना चाहिए।
झूलेलाल जी का अवतरण 
दसवीं शताब्दी में सिंध प्रांत के मुस्लिम शासक ने मिरख ने जबरन लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया और जब लोग मना करते तो उन पर अत्याचार करता तब सिंध के सभी वासी सिंधु नदी किनारे जाकर प्रार्थना करने लगे चालीस दिन तक वो सभी बैठे रहे और कहा "हे प्रभु आप अगर आज भी नहीं सुनोगे तो हम सभी सिंधु नदी में अपने प्राण त्याग देंगे" और जब सभी अपने प्राण त्यागने ही लगे थे तभी बिजली चमकी ओर आकाशवाणी हुई कि तुम सभी घर जाओ मैं बहुत जल्दी ठाकुर रत्नराय के घर माता देवकी गर्भ से जन्म लेकर मिरख बादशाह के अत्याचारों को खत्म करूंगा।
आखिर भविष्यवाणी अनुसार झूलेलाल जी जन्म हुआ ओर जन्म के वक्त उनका नाम उदयनंद रखा गया बाल्यावस्था से ही चमत्कारों के धनी थे वो उनका पालना खुद झूलता था जिस कारण उनका नाम झूलेलाल पड़ा।
थोड़ा बड़ा होने पर वे मिरख बादशाह के दरबार पहुंचे तब उन्हें देख वो अभिमानी राजा क्या देखता हैं कि फौज की फौज उनकी और चली आ रही हैं,चारों हो अग्नि प्रज्वलित हो रही उसे कही बचने का रास्ता नहीं मिल रहा हैं।आखिर वो जाकर झूलेलाल जी के चरणों में गिर गया और अपनी गलतियों की माफी मांगी तब झूलेलाल जी ने उन्हें समझाया सभी धर्म समान है हर व्यक्ति ओर उनके धर्म का सम्मान करो । 
आज भी लोगों की तपस्या के वो चालीस दिन सिंधी समाज में चालीसा के रूप में और झूलेलाल जी का जन्मदिवस चेटीचंड के रूप में मनाया जाता है।



दतिया शहर के चालीसा का महत्त्व
वैसे तो जहां जहां सिंधी है वहां वहां चालीसा बड़ी धूमधाम ओर श्रद्धा के साथ मनाया जाता है पर दतिया एक छोटा शहर किंतु वहां के चालीसा की धूम ओर खासियत पूरे विश्व के सिंधी जानते है । 
दतिया जहां स्थित है अखंड ज्योति जो ना जाने कबसे प्रज्वलित है , चालिया के आखिरी दिन ज्योति स्नान होता होता पर ये वो ज्योति जो स्नान के बाद भी जलती रहती है जो प्रमाण है भारत में आज भी आस्था और चमत्कार होते है। 
ये अखंड ज्योति आस्था का प्रतीक है जिसकी ज्योति आज भी सिंधी समाज को अहसास कराती है कि हमारे ईष्ट हमारे साथ है पल पल।
ज्योति का ख्याल रखने हेतु दतिया ओर दतिया के बाहर के कई लोगों का योगदान महत्वपूर्ण है जो अपने घर के साथ अपने ईष्ट की सेवा हेतु तत्पर रहते है।
दतिया का चालीसा ज्योति स्नान महोत्सव के नाम से जाना जाता है, यहां चालीसा रखने वाले व्यक्तियों के साथ दर्शन हेतु आने वाले लोगों की भी इतनी उत्तम व्यवस्था होती है कि देखने वाला वाह कह उठे,नाश्ते से लेकर रात के खाने,दूध,पानी ,चाय छोटे बच्चों हेतु दूध के साथ साथ वहां डॉ ओर दवाओं की भी व्यवस्था की जाती है ताकि बाहर से आए व्यक्ति को कोई दिक्कत तकलीफ़ ना हो और लाखों हजारों लोगों की सेवा हेतु दतिया के छोटे बच्चों से बुजुर्ग सभी सेवा में अपना पूरा योगदान देते है किंतु मंदिर की सेवा कमिटी ये सारा प्रबंध इतने अच्छे से देखती है कि इन चालीस दिनों में कभी कभी उन्हें अपने घरों में झांकने तक की फुर्सत नहीं मिलती। महोत्सव के खर्च के लिए कुछ श्रद्धालु व्यापारी भाई अपनी ओर से जो बन पड़ता है करते है ।ये दतिया का महोत्सव आप देखकर ही समझ सकते है अपने ईष्ट प्रति लोग कैसे तन मन धन से अर्पित रहते है।



अखंड ज्योति की उत्पति 
एक बहुत जाने माने संत हुए "संत हजारीराम" जिनको झूलेलाल का परम भक्त ओर कई लोग अवतार भी मानते है।
सिंध के वरदड़े गांव में निवास करते थे हालांकि उनके पूर्वज मुल्तान के निवासी थे पहले किंतु बाद में उनका निवास बदला।
 संत हजारीराम के पिता "श्री रतलाल" थे।रतनलाल जी के आठ पुत्र एवं एक पुत्री थी।
रतनलाल जी के सातों पुत्र गृहस्थ जीवन जीते हुए अपने अपने व्यापार में व्यस्त रहते थे किंतु उनके छोटे पुत्र श्री हजारीराम जी बचपन से ही ईश्वर भक्त एवं संत सेवी थे इसलिए उनका मन तो वैराग्य में ही रमता था।
उन दिनों ना बिजली होती थी ना आटा चक्कियों का चलन था , महिलाएं हाथ की चक्कियों पर ही घर में आटा पीसती थी। हजारीराम जी का परिवार का काफी बड़ा था और उनके घर की महिलाएं मिलकर आटा घर पर ही पीसती थी जिसमें काफी परिश्रम होता था।
गांव में काफी साधु संतों का आना जाना रहना था और उनके खान पान की व्यवस्था हेतु पंचायत की ओर से एक राशि निश्चित थी किंतु वो राशि अपर्याप्त थी जो संत हजारी राम जी बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था,तो वो अपने घर से उनके भोजन हेतु आटा लाकर दे देते थे। जिस कारण उनके भाई और भाभियां अप्रसन्न रहते थे। भाभियां बोलती कमाता फूटी कौड़ी नहीं और घर की सामग्री को लुटाता फिरता है।
उनके परिवार ने विचार विमर्श कर उन्हें विवाह सूत्र में बांधने की सोची ,उन्हें लगा गृहस्थ जीवन में आने के पश्चात् उन्हें हर चीज का अहसास हो जाएगा जब उनकी पत्नी खुद हाथों से आटा पीसेगी तो इस तरह आटा बांटना छोड़ देगा। यही सोच उनका विवाह करवा दिया गया। किंतु जो परमात्मा के प्रेम रंग जाय तो दुनिया के सारे रंग उसके लिए फीके है।विवाह के बाद वो और ज्यादा समय साधु संतों के साथ बिताने लगे और एक दिन गांव छोड़कर कर भ्रमण पर निकल गए। मार्ग में जो साधु संत मिलते उनसे हरि चर्चा करते और भ्रमण करते वो डहरकी गांव पहुंचे।
वहां वे संत दादूरामराम के सानिध्य में दो साल तक रहे और उनकी सेवा की और उनसे गुरु दीक्षा ली ।
हजारी राम जी भाइयों ने कई बार उन्हें गृहस्थ जीवन में लाने का प्रयास किया और साईं दादूराम जी से इस विषय अनुनय विनय की तब संत दादूराम जी ने हजारीराम जी जाने की आज्ञा दी।
गुरु आज्ञा के कारण वह परिवार में लौट आए और गृहस्थ जीवन में रहते उन्हें दो संतान उत्पन्न हुई। पर उन पर तो हरि रंग चढ़ चुका था पूरी तरह ,तभी वो फिर से घर त्याग के निकल पड़े और रोहड़ी नगर में आ पहुंचे। वहां सिंधु नदी किनारे ऊंचाई पर एक मंदिर था जहां वो रहने लगे और सेवा करने लगे ।मंदिर में काफी जल को आवश्यकता होती थी तो जल सेवा का भार ले लिए ,वो रोज मटके भर कंधों पर रखकर मंदिर तक ले जाते थे ऐसा करते हुए उनके कंधों पर घाव हो गए और उसमें कीड़े पड़ गए । एक बार पानी ले जाते वक्त उनके घाव से कीड़ा नीचे गिर गया पर उन्होंने उसे उठाके वापस कंधे पर रख दिया ।ऐसा दृश्य देख कुछ लोगों ने मंदिर के महंत जी को बताया तो महंत जी बोले_ कि वो भक्ति के इस पड़ाव पर पहुंच गया है जहां अपना बस नहीं चलता जिस कारण खुद की सुध नहीं होती।अपनी तारीफ जब हजारी राम के कानो तक पहुंची तो उन्हें अच्छा नहीं लगा और बोले मैं तो एक साधारण सा सेवक हूँ और तब उन्होंने जल समाधि लेने का निर्णय किया।
इधर हजारीराम जी के परिवार वाले उन्हें खोजते रोहड़ी नगर आ पहुंचे और महंत जी को हर चीज का जिम्मेदार बताने लगे ।
महंत जी तब उनको उस जगह ले गए जहां हजारीराम जी ने समाधि ली थी।तब वो सभी मिलकर झूलेलाल जी के निमित अख्खा (अक्षत ) डाल प्रार्थना करने लगे कि वो हजारीराम को लौटा दे ।इस तरह आठ दिन व्यतीत हो गए और नौवें दिन एक चमत्कार हुआ "संत हजारीराम जी जल में से एक ज्योति लेकर निकले और उनके वस्त्र बिल्कुल सूखे हुए थे।उन्हें देख सब काफी प्रसन्न हुए।
तब महंत जी उनके भाइयों को समझाया कि ये ज्योति वरुण देव द्वारा खुद प्रज्वलित ज्योति है और हजारीराम जी तो वरुण देव के अवतार स्वरूप है इस ज्योति को तेल डालकर सदा प्रज्वलित रखना अब आप अपने भ्राता को घर ले जाएं।
इसके बाद सभी अपने गांव लौट आए और ज्योति को एक छोटा सा कच्चा देवालय बनवाकर स्थापित किया ।
इस तरह कई दिन सब कुछ ठीक चलता रहा किंतु माया में बंधे लोग हरि नाम की महिमा सेअनभिज्ञ रहकर आखिर माया में भ्रमित हो ही जाते है। आखिर हजारीराम जी को भी उनके भाइयों ने तंग करना शुरू कर दिया बोले इसके बीवी बच्चों का हम ही भरन पोषण करते रहते है और ये यू ही मंदिर में पड़ा रहता है जब इसे ज्योति के लिए तेल नहीं देंगे तो ये सारी बातें समझेगा। इस तरह ज्योति के लिए तेल ना मिलने पर हज़ारिराम जी झूलेलाल से प्रार्थना करने लगे हे _कि मैं भी आपका हूं और ज्योति भी आपकी जैसा आप चाहे वैसा करे। तब आकाशवाणी हुई तू चिंता मत कर पास के कुएं की रहट में बंधी हुई घरिया खोल और उसका पानी ज्योति में डाल ।तब उन्होंने ऐसा ही किया और चमत्कार हुआ कि पानी से भी ज्योति जगमग कर जल रही थी। चमत्कार देख सब स्तब्ध रह गए और माफ़ी मांगी फिर ज्योति के लिए तेल का प्रबंध किया गया।
कुछ समय बाद भाइयों में संपति का बंटवारा हुआ और कुआं संत हजारीराम जो को दिया गया। कुछ समय बाद उनके कुलगुरु आए तब उन्होंने अपने हिस्से की सारी सम्पत्ति गुरु को अर्पित कर दी। गुरु जी उनको बोले आप गृहस्थ है ऐसा ना करे पर वो नहीं माने तब गुरु जी बोले ऐसा करो इससे होने वाली कमाई से यहां ज्योति के लिए मंदिर बनवा देना। उनके भाइयों ने उन्हें ऐसा करते देखा तो उनको भी अपने भाई के परिवार की चिंता हुई तब सभी ने थोड़ा थोड़ा हिस्सा अपनी संपति में से हजारीराम के संतानों के नाम के दिया।
धीरे धीरे ज्योति मंदिर के चमत्कारों के चलते प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और कई दर्शनार्थी आने लगे और वहां सभी के भोजन आदि की भी व्यवस्था की जाती थी दर्शन कर सब खुश होकर जाते थे।
एक दिन वैरागी संत हजारीराम ने निर्णय लिया कि अब वो अपना शरीर त्यागना चाहते है और अपनी ये इच्छा अपने परिवार से कहीं और कहा मेरे प्राण जाने पर रोना नहीं फिर नीचे एक चादर ओढ़ कर लेट गए और उन्होंने प्राण त्याग दिए। किंतु उनका परिवार उनकी कही बात भूल जोर जोर से रुदन करने लगे और जिस कारण संत फिर जीवित हो उठे। निजधाम जाने की प्रबल इच्छा के चलते वो चादर लेकर एक दिन अपनी बुआ के गांव गए उन्हें देख उनकी बुआ बहुत प्रसन्न हुई हजारीराम जी ने अपने मन की इच्छा बताई बुआ ने उन्हें वचन दिया कि वो अश्रु नहीं लाएंगी और तब उनकी बुआ ने गोबर लीपकर स्थान पवित्र किया तो हजारीराम जी वहां चादर ओढ़ कर लेट गए पल भर में ही उनके प्राण निकल गए पर कुछ देर बाद ममतावश उनकी बुआ के आंसू बह निकले और हजारीराम जी फिर राम राम कह उठ गए और बोले यहां भी निजधम जाने की इच्छा अधूरी रह गई।
फिर वे चादर कंधे पर रख अपने गुरु के पास गए और अपने गुरु दादूराम जी को प्रणाम किया ।जब वो मंदिर पहुंचे तब कीर्तन चन रहा था काफी साधु संत थे वहां, उनके गुरु उनको आर्शीवाद दे कीर्तन में मग्न हो गए तभी हजारीराम जी फिर वह चादर डाल लेट गए और पल भर में उनके प्राण शरीर से निकल गए और वो निजधाम को प्रस्थान कर गए।
और उनके निजधाम गमन के बाद उनकी दी संपति से होने वाली कमाई से गुरु के अनुसार ज्योति मंदिर बनवाया गया और धीरे धीरे चमत्कारी ज्योति की प्रसिद्धि देख हिन्दू मुस्लिम सभी अपनी मुरादें लेकर ज्योति दर्शन हेतु आने लगे।


ज्योति का सिंध से दतिया में स्थानांतरण 
1947 में विभाजन के समय काफी दंगे भड़के तब कुछ सिंध के वासी वही रहने के पक्ष में थे पर अधिकांश भारत आना चाहते थे ।तब ज्योति को लेकर विचार विमर्श बाद निर्णय हुआ कि अखंड ज्योति से एक ज्योति और प्रज्वलित की गई ।तय हुआ जब तक भारत में अखंड ज्योति की स्थाई स्थापना हो तब तक जमानत ज्योति की सेवा( ज्योति से प्रज्वलित दूसरी जलाई गई ज्योति) पन्ने केआकुल पंचायत को दी गई और मूल अखंड ज्योति आसुदाराम जी द्वारा पंचायत के वरिष्ठ सदस्यों गिरधारीलाल रतलाणी और प्रभुराम राजाणी जी को दी गई।
प्रारंभ में ज्योति की स्थापना राजस्थान के गुलाबपुरा के बनोई में की गई फिर भारत आते रोजी रोटी की तलाश में घूमते घुटे दतिया पहुंचे ।गिरधारीलाल और प्रभुराम जी के साथ ओर 15परिवार दतिया पहुंचे जहां ज्योति की स्थाई स्थापना की गई ।इस चमत्कारिक अखंड ज्योति की स्थापना ओर मंदिर निर्माण हेतु श्री जोतूराम रत्नाणी, हासोमल जी, ओम बन्ना,नंदीराम टेऊमल रत्नाणी,श्रीआचरमल,श्री वीरूमल ,श्री गिरधारी मल,श्री चंदीराम , हासामल गोविंदराम बन्ना , पारिमल परसवानी आदि काफी परिवारों ने तन मन धन से सहयोग दिया।
आज भी कई लोग सारे प्रबंध हेतु तन मन धन से ज्योति की सेवा हेतु सदा तत्पर रहते हैं।
आज भी चमत्कारी ज्योति के दर्शन हेतु दूर दूर से देश विदेश से लोग दतिया आते है और हर साल चालीसा महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कहते ही है भारत आस्था और चमत्कार का देश है । एक ज्योति पानी में स्नान के बाद भी जलती निकलती है । आज भी इस बात का प्रमाण देती है कि_ "जहां आस्था है वहीं रास्ता है"। जय झूलेलाल साईं


राधे मंजूषा



Comments